अष्टांगयोग
आहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा: यो.सू. २/३०
विच्छेद:-- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
ये पाँच यम है।
विच्छेद:-- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
ये पाँच यम है।
इस सूत्र में यम के पाँच भाग बताये गए जिनका पालन करना अति आयश्यक होता है।
व्याख्या:-- १. अहिंसा:-- मानस, वाचा,कर्मणा (मन, वचन,कर्म) इन तीनो से किसी पर भी किसी भी प्रकार की हिंसा नही करनी चाहिए।
२. सत्य:-- इन्द्रिय और मन से विचार कर देखकर, सुनकर हम जैसा अनुभव करते हैं वो बात किसी को ऐसे बोलना की उसे बुरा न लगे उसे ही सत्य कहते है।
३. अस्तेय:-- किसी भी व्यक्ति से उसकी वस्तु बिना आज्ञा के ले लेना या उसके साथ धोखा कर के ले लेना अस्तेय कहलाता है।
४. ब्रह्मचर्य:-- इन्द्रियों को वश में करके ब्रह्मचर्य की रक्षा करना किसी भी प्रकार के काम उद्दीपक चीजो को ग्रहण करना किसी भी प्रकार से गलत है, इन सब से बचते हुए वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य कहलाता है।
५. अपरिग्रह:-- मनुष्य के अन्दर जो संचय करने की प्रकृति होती है उसी को त्यागना अपरिग्रह कहलाता है।
![]() |
अष्टांगयोग |
2. नियम:--
यह एक प्रकार से आंतरिक अनुशासन है, जिस प्रकार यम, मनुष्य को सामाजिक बनाता है उसी प्रकार नियम, मनुष्य को आंतरिक रूप से सामाजिक बनाता हैं।
शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा: ।।यो.सू. 2/32।।
विच्छेद:- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, और ईश्वरप्रणिधान
ये पांच नियम हैं।
यह एक प्रकार से आंतरिक अनुशासन है, जिस प्रकार यम, मनुष्य को सामाजिक बनाता है उसी प्रकार नियम, मनुष्य को आंतरिक रूप से सामाजिक बनाता हैं।
शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्राणिधानानि नियमा: ।।यो.सू. 2/32।।
विच्छेद:- शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, और ईश्वरप्रणिधान
ये पांच नियम हैं।
१. शौच:-- जैसा कि सभी जानते शौच के अर्थ होता है शुद्धि करना, पवित्रता। अभक्ष्य, अपेय, का सेवन न करना, कुसंगतियो का संग ना करना, ये शौच है, शौच भी दो प्रकार के होते है। * बाह्य, * आंतरिक शौच।
बाह्य शौच -- साबुन शेम्पू पानी आदि से हम अपना शरीर/वस्त्र, तो साफ कर लेते है, अच्छे भोजन से आहार की पवित्रता आती हैं।
आंतरिक शौच-- आपने दुर्गुणों को त्याग देने से, जप, तप, दान आदि से अन्त:कारण की सुद्धि होती है।
बाह्य शौच -- साबुन शेम्पू पानी आदि से हम अपना शरीर/वस्त्र, तो साफ कर लेते है, अच्छे भोजन से आहार की पवित्रता आती हैं।
आंतरिक शौच-- आपने दुर्गुणों को त्याग देने से, जप, तप, दान आदि से अन्त:कारण की सुद्धि होती है।
२. संतोष:-- जीवन मे सुख दुख, लाभ हानि, जय पराजय, आपने कर्मफल को स्विकार करना इन सब स्थितियों में सम भाव से रहना संतोष कहलाता है।
३. तप:-- आपने कर्म को निष्ठा से करते हुए अपनी योग्यता के अनुसार आपने काम को करना और उसमें जो भी शारीरिक व मानसिक कष्ट हो खुसी से स्वीकार करना तप हैं।
४. स्वाध्याय:-- आचार्य विद्वानों आदि से वेद, उपनिषद, रुद्र सूक्त, और पुरुसूक्त आदि का अध्यन स्वाध्याय है, वैसे स्वयं का अध्यन करना भी स्वाध्याय कहलाता है।
५. ईश्वरप्रणिधान:-- ईश्वर की भक्ति में ओर उपासना म् स्वयं को लीन कर देना ही ईश्वर प्रणिधान कहलाता हैं।
Comments
Post a Comment